Sep 16, 2012

सेक्स चर्चा (भाग-3)

june 09 002
जीवन के बाह्य परिधि,दीवाल पर काम-वासना हैं--
   सेक्स की बात सुन कर हम मन ही मन रोमांचित होते हैं .जब भी मौका हो सेक्स की चर्चा में शामिल होने से नहीं चूकते .इंटरनेट पर सबसे अधिक सेक्स को हीं सर्च करते हैं,लेकिन हम इस पर स्वस्थ संवाद /चिंतन/ मंथन करने से सदैव घबराते रहे हैं और आज भी घबराते है| अनेक विद्वानों ने सेक्स को जीवन का बही आवरण बताया है जिसको भेदे बिना जीवन के अंतिम लक्ष्य अर्थात मोक्ष की प्राप्ति संभव नहीं है . सेक्स अर्थात काम जिन्दगी की ऐसी नदिया है जिसमें तैरकर हीं मन रूपी गोताखोर साहिल यानी परमात्मा तक पहुँचता है .

    “एक बार ओशो अपने साथियों के संग खजुराहो घूमने गये . वहां मंदिर की बही दीवारों पर मैथुनरत चित्रों व काम-वासनाओं की मूर्तियों को देख कर सभी आश्चर्यचकित को पूछने लगे यह क्या है ? ओशो ने कहा ,जिन्होंने इन मंदिरों का निर्माण किया वो बड़े समझदार थे . उनकी मान्यता यह थी कि जीवन की बाहरी परिधि काम है . और जो लोग अभी काम से उलझे है ,उनको मंदिर के भीतर प्रवेश का कोई अधिकार नहीं है .फ़िर अपने मित्रों को लेकर मंदिर के भीतर पहुंचे .वहां कोई काम-प्रतिमा नहीं थी ,वहां भगवान् की मूर्ति विराजमान थी . वे कहने लगे ,जीवन के बाह्य परिधि,दीवाल पर काम-वासना है .मनुष्य को पहले बाहरी दीवार का हीं चक्कर लगाना पड़ेगा .पहले सेक्स को समझो जब उसे समझ जाओगे तब महसूस होगा कि हम उससे मुक्त हो गये हैं तो भीतर खुद बखुद आ जाओगे .तद्पश्चात परमात्मा से मिलन संभव हो सकता है . “
आदमी ने धर्म ,नैतिकता , आदि के नाम पर सेक्स को दबाना आरम्भ किया .हमने क्या -क्या सेक्स के नाम पर खाया इसका हिसाब लगाया है कभी ? आदमी को छोड़ कर ,आदमी भी कहना गलत है ,सभी आदमी को छोड़ कर समलैंगिकता /होमोसेक्सुँलिटी जैसी कोई चीज है कहीं ? जंगल में रहने वाले आदिवासिओं ने कभी इस बात की कल्पना नहीं की होगी कि पुरुष और पुरुष ,स्त्रिऔर स्त्री आपस में सम्भोग कर सकते हैं ! लेकिन सभी समाज के आंकड़े कुछ और हीं कहते हैं .पश्चिम के देशों को जाने दीजिये अब तो विकासशील देश भारत में भी उनके क्लब / संगठन बनने लगे हैं जो समलैंगिकता को कानूनी और सामाजिक मान्यता देने की बात लडाई लड़ रहे है .होमोसेक्स के पक्षधर मानते हैं – ” यह ठीक है इसलिए उन्हें मान्यता मिलनी चाहिए . अगर नहीं मिलती है तो यह अल्पसंख्यकों के ऊपर हमला है हमारा .दो आदमी अपनी मर्जी से साथ रहना चाहते हैं तो किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए ” ऐसे लोग खुलापन लाने की बात करते हैं .अरे , भाई इस समाज में प्राकृतिक सेक्स को लेकर खुलापन नहीं आ पाया है तब गैर प्राकृतिक सेक्स के सन्दर्भ में खुलापन कैसा ? आप सोच नहीं सकते यह होमो का विचार कैसे जन्मा ! दरअसल यह सेक्स के प्रति मानव समाज की लड़ाई का परिणाम है . सेक्स को केवल चंद मिनटों के मज़े का उपक्रम समझने की भूल है .जितना साभ्य समाज उतनी वेश्याएं हैं ! किसी आदिवासी गाँव या कसबे में वेश्या खोज सकते हैं आप ? आदमी जितना सभी हुआ सेक्स विकृत होता गया . सेक्स को जितना नकारने की कोशिश हुई उतना हीं उल्टा नतीजा आता गया . इसका जिम्मा उन लोगों के कंधे पर है जिन्होंने सेक्स को समझने के बजे उससे लड़ना शुरू कर दिया . दमित सेक्स की भावना गलत रास्तों से बहने लगी .नदी अगर रास्ते की रुकावटों के कारण अपना पथ भूल कर गलत दिशा में जहाँ गाँव बसे हैं बहने लगे तो क्या उसे रोका नहीं जायेगा ? काम / सेक्स का हमारे वर्तमान जीवन मात्र से सम्बन्ध नहीं है अपितु जीवन के आरम्भ ,उसके अंत और उसके उपरांत भी बना हुआ है . सेक्स प्रेम का जनक है और प्रेम आत्मा से परमात्मा तक जाने का जरिया . ओशो ने कहा ; काम के आकर्षण का आधार क्या है इसे समझ लेना अत्यंत आवश्यक है और यदि उस आधार पर टिके रहा जाए तो काम का राम में परिवर्तन होते देर नहीं है .

     ओशो को लोग सेक्स का पक्षपाती मानते हैं जबकि ऐसा नहीं है . उन्होंने काम की उर्जा को सही दिशा में ले जाने की बात कही है . स्वप्निल जी समलैंगिकता को विकृति नहीं मानते मैं सेक्स को पाप नहीं मानता .राजेंद्र यादव और अरुंधती सरीखे काम के ज्ञाता होमो -हेट्रो सभी तरह के सेक्स को मानते हैं पर शादी को नहीं मानते .अब साहब हमारा आपका मानना कोई चिरंतन सत्य तो नहीं है .बाबा रामदेव जैसे योग गुरु और दुनिया के अनेक चिकित्सक लोगों का मानना है यह एक हार्मोनल डिसआर्डर है . रामदेव जी ने तो यहाँ तक कहा कि जब मेंटल डिसआर्डर ठीक हो सकता है ,कैंसर ठीक हो सकता है तब होमो डिसआर्डर क्यों नहीं ? खैर , ये तो चर्चा का विषय है . समाज अक्सर भटकाव का शिकार होता है . इसी देश में आज से ४-५ सौ साल पहले से अब तक का कालखंड अनेक कुरीतियों में फंसा रहा जिन्हें तत्कालीन समाज के लोग सही मानते थे .क्या तब कोई साधारण आदमी तमाम अंधविश्वासों को गलत मानने को तैयार था ? नहीं , छोटे वर्ग में फैली तमाम कुरीतियाँ/विकृतियाँ शनैः शनैः विस्तार लेती गयी .हो सकता है आज अल्पसंख्यक गे और लेस्बियन लोग कल को बहुसंख्यक हो जाएँ . वैसे भी गलत चीजों को फैलते देर नहीं लगती है . लेकिन याद रहे वो समय भी जब अपने समय से दूर भविष्य की सोचने वाले लोगों ने समाज को नई दिशा दी है . हमारा देश कई बार जगा है और अपनी निरंतरता को बनाये हुए है .
स्वप्निल जी बदलाव से हम डरे नहीं .चर्चा होनी चाहिए और होमो कोई विषय नहीं है . हमारा विषय तो सेक्स और समाज है जिसमें एक पैरा होमो को मान कर चलना चाहिए . सेक्स जिस चीज के लिए आतुरता पैदा करता है उसे पा लें तो सारी झंझट ही ख़त्म ! लेकिन उस शांति को हमने छिछोरेपन में मज़े का स्वरुप दे दिया है . अपने अन्दर के प्रेम को बाहर लाने की जरुरत है .पर कैसे होगा ? हम जमीन का बाहरी आवरण हटा कर इस आस में बैठे हैं कि बारिश होगी तब पानी जमा होगा फ़िर पियेंगे .जबकि जरा सा गड्डा और खोद कर अन्दर का जाल प्राप्त हो सकता है . ठीक उसी प्रकार मन में बसे प्रेम को बाहर तलाशने से क्या होगा ? प्रेम तभी प्रकटित हो पायेगा जब उसे जगह मिल पायेगी .खाली ग्लास को पानी से भरी हुई बाल्टी में उलट कर रखने पर एक बूंद पानी नहीं जा पाती है क्योंकि उसमें पहले से वायु भरा होता है .उसी प्रकार सेक्स के दमन ने दिल-दिमाग पर सेक्स का कब्जा करवा दिया है . जब तक दिमाग को सेक्स के कब्जे से मुक्त नहीं करेंगे प्रेम प्रकट नहीं हो पायेगा . और ऐसा तभी होगा जब सेक्स को समझा जाए ,उसे अनुभव किया जाए .उस अनुभव में समय की शुन्यता और अहम् भाव की शुन्यता का मिलन होते हीं स्वयं प्रेम का प्रस्फुटन हो जायेगा |

    तो दोस्तों, बताईये जब मैं सेक्स पर चर्चा करता हूँ तो इसमें गलत  है ? अपनी राय अवश्य प्रस्तुत करें।।

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